Saturday, July 31, 2010

http://khabar.ndtv.com/Article/2008/12/21200052/arfa-column-21122008.html
26 नंवबर को मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के बाद से भारत से लगातार पाकिस्तान की तरफ उंगलियां उठ रही हैं। भारत ने कहा है कि उसने पाकिस्तान को तमाम ऐसे सबूत दिए हैं, जो साबित करते हैं कि भारत पर हुए इन हमलों में न सिर्फ पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल हुआ है, बल्कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई भी इस साजिश में शामिल है। हालांकि यह सब कहने के बावजूद भारत बर्दाश्त से काम ले रहा है और साफतौर पर युद्ध की धमकी पाकिस्तान को नहीं दी गई है। यह अलग बात है कि कई बार 'हर विकल्प खुला' होने की बात कही गई है, लेकिन बयान के साथ-साथ इसकी सफाई भी चली आई है। साफ है, जंग के सवाल पर धुंध की स्थिति भी पाकिस्तान पर कार्रवाई करने के लिए दबाव ही डालेगी।
लेकिन वापस मीडिया और जानकारों का एक बड़ा वर्ग एक माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है कि भारत को पाकिस्तान पर हमला कर देना चाहिए। समझाया जा रहा है कि इधर भारत पाकिस्तान पर हमला करेगा और उधर देश में हो रहे तमाम आतंकवादी हमले रुक जाएंगे, हमेशा के लिए आतंकवाद की तरफ से भारत की धरती पाक हो जाएगी।
यह काम बेहद आसान भी है, हमसे पहले अमेरिका भी कर चुका है। 11 सितंबर को अलकायदा ने अमेरिका पर हमला कर दिया। दुनिया की सबसे बड़ी ताकत को चुनौती दी। इस ताकत ने तय किया कि इसका हिसाब सिर्फ ओसामा बिन लादेन को नहीं, पूरे अफगानिस्तान को चुकाना होगा। आखिर अमेरिकियों के महंगे कानून का हिसाब इतना सस्ता क्यों होगा। और फिर पूरे सात साल किसी की मजाल नहीं हुई कि अमेरिका की तरफ टेढ़ी आंख से देख सकता। इससे क्या फर्क पड़ता है कि वह दुनिया में सबसे नफरत से देखा जाने वाला देश बन गया, सुरक्षित तो है।
यह अलग बात है कि अपने आखिरी दिनों में बगदाद में एक पत्रकार के जूते ने बुश को 'बड़े बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले' का मतलब समझा दिया। भारत अमेरिका नहीं है। अमेरिका की आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुसलमान नहीं है। मुंबई पर हुए हमले में मारे गए 200 लोगों में करीब 40 मुसलमान भी थे। जो अपनी आबादी के प्रतिशत से भी ज्यादा हैं। इस बात को छेड़ने के लिए यह सही वक्त और मौका नहीं है, लेकिन फिर भी कहना पड़ेगा कि अगर एनएसजी और मुंबई पुलिस में कुछ मुसलमानों की तादाद होती तो बेशक मरने वालों में कुछ नाम उनके भी होते। हमारी समझ में न जाने क्यों ऐसी रीत चली है कि मरकर ही वतनपरस्ती साबित होती है।
यहां यह भी साफ करना जरूरी है कि पाकिस्तान पर इस जंग का आम भारतीय मुसलमान से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से आम मुसलमान का भी वही मजहब है, जो इन आतंकवादियों का। मुंबई पर हुआ यह हमला बिना स्थानीय मदद के हुआ होगा, मुश्किल लगता है। और कौन भूल जाए कि मुंबई से पहले भी भारत अपनी ही धरती पर पनपे आतंकवाद से लड़ रहा है। नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी पाकिस्तान से लड़ने के लिए, घर में पनपे आतंक को काबू करने के लिए बनाई गई है।
दरअसल समझने की जरूरत है कि समस्या हमारी है, सवाल हमारे हैं, जानें हमारे लोगों की गई हैं, खून हमारा बहा है और देश भी हमारा है, इसलिए जवाब हमें ढूंढना होगा, बदला भी हमें ही लेना होगा और इसका तरीका भी हमें ढूंढना होगा। अगर जंग पर बन आए तो भी हमें अपने हथियारों से, अपने फौजियों के साथ, अपने दिमाग से, अपने तरीके से लड़नी होगी। और यही तो करते रहे हैं हम पिछले 61 सालों से।
आजाद मुल्क आजाद फैसले लेते हैं। अगर देश की आन बचाने के लिए पाकिस्तान से जंग जरूरी है तो बेशक की जाए, बिना दोबारा सोचे की जाए। लेकिन जंगें जज्बात से नहीं लड़ी जातीं। जंग की एक कीमत होती है, जो हम में से हर एक को चुकानी होगी।
पाकिस्तान एक शैतान का नाम नहीं है, जिस पर वार करके हम हमेशा के लिए अपनी सरजमीं से दहशत का खात्मा कर देंगे। पाकिस्तान में एक मक्कार खुफिया एजेंसी आईएसआई है। भारत पर हमला करने के लिए विशेष रूप से तैयार की गई फौज है। लेकिन पाकिस्तान की एक सिविल सोसाइटी भी है, जो हमसे बात करना चाहती है। एक कारोबारी वर्ग है, जो हमसे व्यापार करना चाहता है। नई नवेली सिविलियन गवर्नमेंट भी है, जो अपने को स्थायित्व देने के लिए भारत का मुंह देखती है। पाकिस्तान को करीब से देखने वाले मानते हैं कि हमें हैरान नहीं होना चाहिए अगर मुंबई पर हमले की योजना के बारे में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को कुछ भी जानकारी न हो, तो ऐसे में हम जंग किससे लड़ेंगे। पाकिस्तानी आम आदमी से, जो आतंकवाद से इतना ही त्रस्त है, जितना हिन्दुस्तानी आम आदमी। या फिर उस सिविलियन गवर्नमेंट से, जिसे राष्ट्रपति को बिना आईएसआई और फौज के इशारे के एक छोटा-सा फैसला भी लेने का अधिकार नहीं है।
कहा जाता है कि हर देश के पास अपनी एक सेना होती है, लेकिन पाकिस्तान एक ऐसा देश है, जिसकी सेना के पास एक देश है। पाकिस्तान बनाने के इतने बरसों बाद भी अब तक वहां सिर्फ फौज जीतती रही है, पहली बार वहां की आम जनता को लगा कि मुल्क उसका भी है। हम जानते हैं नागरिक अधिकारों की यह लड़ाई बेहद धीमी और लंबी है, लेकिन नई सरकार से एक आस तो है। भारत-पाकिस्तान की इस जंग से भारत को कोई नतीजा मिले या न मिले, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि इस युद्ध से पूरे पाकिस्तान पर सिर्फ सेना का कब्जा हो जाएगा। एक ऐसा देश, जहां पहले से ही अघोषित गृह युद्ध चल रहा हो। भारत से यह जंग उसको और अस्थायी बना देगी।
इसके बावजूद अगर कूटनीति के रास्ते भारत को इच्छित नतीजे नहीं मिल पाते हैं और सरकार को अपनी जनता को जवाब देने के लिए (खासकर जबकि आम चुनाव सिर्फ 3-4 महीने दूर हों) हमला करना पड़ता है तो भी हमें याद रखना होगा कि हमारा सबसे करीबी देश सबसे खतरनाक भी है। भले ही दुनिया इस देश को दिवालिया करार दे रही हो, लेकिन कभी-कभी विनाश की ताकत विकास से कहीं बड़ी हो जाती है। क्या हम चाहेंगे कि जंग के हालात में न्यूक्लियर बम सरकार के हाथ से मुल्लाओं के हाथ चला जाए?
सवाल यहां खत्म नहीं होते। 11 सितंबर, 2001 के बाद से अब तक अमेरिका अपनी 'वार ऑन टेरर' में पाकिस्तान को साथ लेकर चलता रहा है। और बदले में चुकाता रहा है खरबों डॉलर। क्या अमेरिका चाहेगा कि भारत-पाकिस्तान युद्ध में उलझ जाएं और पाकिस्तान अपनी फौज को पश्चिम से पूरब की तरफ ले जाए। इसका मतबल होगा कि पाकिस्तान की अफगानिस्तान से लगी जख्मी सरहद को खुला छोड़ देना, जिसके नासूर बनने से न सिर्फ पाकिस्तान, बल्कि भारत और पूरी दुनिया को खतरा होगा। जंग का यह फैसला हमने किसी से डरकर नहीं, किसी के असर में नहीं, किसी के इशारों पर नहीं, किसी के समझौते से नहीं, सिर्फ अपनी अक्ल से लेना होगा।

No comments:

Post a Comment