Saturday, July 31, 2010

http://www.bhaskar.com/article/DEL-mporteddevelopment---the-unemployed-people-1131547.html

इम्पोर्टेड’ विकास के पढ़े-लिखे बेरोजगार

Source: आरफा खानम शेरवानी |

धूप जैसे-जैसे ढलती जा रही थी, सड़क के दोनों ओर लगे घने पेड़ हवा के झोंकों से मस्त हो रहे थे। दिल्ली की चिलचिलाती धूप में आग उगलती सड़कों, सैकड़ों कारों के धुएं से ढंकी त्वचा और जलाती हवा के बारे में सोचा, तो दिल्ली से यह दूरी राहत की अनूभूति दे गई। मेरे आगे चल रही टाटा क्वालिस में ठुंसे हुए बाराती- चमचम करती साड़ियां, भर हाथ चूड़ियां और पसीने में भीगती गहरे रंग की रेशमी पैंट-शर्ट में भी ख़ुशी से भरे चेहरे देखकर जिंदगी के मायने बदलते से लगे। यह था बहराइच जिले के रिसिया नगर पंचायत का जगदीशपुर सोखा गांव!

न गड्ढों के हिचकोले, न कच्ची सड़कें। प्रशासन की मौजूदगी हर पल दर्ज हो रही थी। खासकर एक ऐसे इलाके में, जो उत्तर प्रदेश के सबसे पिछड़े जिलों में एक है। केंद्र सरकार ने भी इस जिले को सामाजिक-आर्थिक- शैक्षिक मापदंड पर अल्पसंख्यक सघनता वाले उन जिलों में शामिल किया है, जो विकास की दौड़ में देश के बाकी हिस्सों से पीछे छूट गए हैं। बहराइच जिले को मशहूर बनाने वाली करीब सात सौ साल पुरानी गाजी मियां की दरगाह पर सालाना उर्स चल रहा था। शहर और बाहर से आने वाले लोगों की भीड़ से बाजार की रौनक देखते बनती थी। लेकिन हैरत हुई कि दरगाह प्रशासन ऊपर वाले के नाम पर श्रद्धालुओं के जरिए हुई लगभग डेढ़ करोड़ की कमाई से अपनी जेब तो भरता है, पर इस पैसे से उसके बंदों के लिए कोई विकास का काम नहीं करता।

बहराइच से लगा है नेपाल का अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर। नेपालगंज से तस्करी के जरिए आने वाले कपड़े और खासकर इलेक्ट्रॉनिक सामान को भी यहां के लोग सिर ऊंचा करते हुए ‘इम्पोर्टेड’ बताते हैं। गांव पहुंचते-पहुंचते हर तरफ जामुन, केले और खासकर आम से लदे पेड़ों को देख कई बार मन ललचाया। आम का मजा तो ठीक है, लेकिन पेड़ पर चढ़ेगा कौन।

अचानक नजर गई 10-12 साल की उम्र के सिर्फ कच्छा पहने लड़के-लड़कियों पर, जो पेड़ पर बैठे जामुन खा रहे थे। पहले तो जलन का भाव आया, फिर ध्यान आया कि इन बच्चों की उम्र बाग में गुजार देने के लिए नहीं, बल्कि क्लासरूम में पढ़ने की है। यहां ज्यादातर युवा जो कुछ पढ़-लिख भी गए हैं, उनके लिए नौकरी के अवसर इतने कम हैं कि वे दूसरों को पढ़ने की प्रेरणा नहीं दे पाते। पास खड़े एक युवक ने तपाक से कहा, ‘स्नातक होने के बावजूद किराने की दुकान ही खोलनी है तो स्कूल में समय बर्बाद करने का क्या फायदा।’ सोचती हूं, सर्व शिक्षा अभियान और अन्य योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च करने वाली सरकार अगर इन पढ़े-लिखे बेरोजगारों के प्रशिक्षण पर कुछ ध्यान दे, तो शायद कुछ बदलाव आ सके।

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